करते थे मजदूरी,
इन्हें अब छोड़ चले है।
सपनो की इस नगरी से
अपना नाता तोड़ चले है।।
ये मीनारे, ये महले, ये दफ्तर,
इन्होंने ही तो बनाये थे।
छोड़कर अधूरा इनको,
अपने गांव की तरफ दौड़ चले है।।
सपनो की इस नगरी से
अपना नाता तोड़ चले है।।
सिर पर गठरी, गोद में नन्ही जान है,
पैर है नंगे, कपड़े फटे - पुरान है।
बंद है जुबान, नैनो में नीर भरे है,
थककर रुके थे, अब थकान को ही छोड़ चले है।।
सपनो की इस नगरी से
अपना नाता तोड़ चले है।।
छाले परे है, पैरो में,
कोई अपना मिला है गैरो में।
जिन्होंने दिया है पानी - भोजन,
कुछ खाये और कुछ छोड़ चले है।।
सपनो की इस नगरी से
अपना नाता तोड़ चले है।।
लेखक:
नाम - संजीव कुमार
पता - दिल्ली
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